श्रीरामचरितमानस (बालकाण्ड) अर्थ सहित दोहे 1 - 10

 

 

|| श्री गणेशाय नमः ||

श्रीजानकीवललभो विजयते

श्री रामचरितमानस

प्रथम सोपान

बालकाण्ड

श्लोक

 

सो०- जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।

करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥ १ ॥

भावार्थ : - जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणोंके स्वामी और सुन्दर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्रीगणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥ १ ॥

 

मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।

जासु कृपां सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥ २ ॥

भावार्थ : - जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुन्दर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान्) मुझ पर द्रवित हों (दया करें), ॥ २ ॥

 

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।

करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ॥ ३ ॥

भावार्थ : - जो नील कमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर में शयन करते हैं, वे भगवान् (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥ ३ ॥

 

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।

जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ॥ ४ ॥

भावार्थ : - जिनका कुन्द के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करनेवाले (शङ्करजी) मुझपर कृपा करें॥ ४ ॥


बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥५ ॥

भावार्थ : - मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नररूप में श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकार के नाश करने के लिये सूर्य-किरणों के समूह हैं॥ ५ ॥

 

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥

भावार्थ : - मैं गुरुमहाराज के चरणकमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुरागरूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (सञ्जीवनी जड़ी) का सुन्दर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भवरोगों के परिवार को नाश करने वाला है ॥ १ ॥

 

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥

भावार्थ : - वह रज सुकृती (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मनुरूपी सुन्दर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है ॥ २ ॥

 

 श्रीगुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू॥

भावार्थ : - श्रीगुरु महाराज के चरण- नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करने वाला है; वह जिसके हृदयमें आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥ ३ ॥

 

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥

भावार्थ : - उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसाररूपी रात्रि के दोष-दु:ख मिट जाते हैं एवं श्रीरामचरित्ररूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खानमें है, सब दिखायी पड़ने लगते हैं- ॥ ४॥

 

दो०- जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।

कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ १ ॥

भावार्थ : - जैसे सिद्धाञ्जन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वीके अंदर कौतुक से ही बहुत-सी खानें देखते हैं॥ १ ॥

 

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिअ द्रिग दोष बिभंजन ॥

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥

भावार्थ : - श्रीगुरु महाराजके चरणों की रज कोमल और सुन्दर नयनामृत-अञ्जन है, जो नेत्रो के दोषोंका नाश करनेवाला है। उस अञ्जन से विवेक रूपी नेत्रोंको निर्मल करके मैं संसाररूपी बन्धन से छुड़ाने वाले श्रीरामचरित्रका वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥

 

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥

सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥

भावार्थ : - पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरनेवाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत-समाज को प्रेम सहित सुन्दर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥ २ ॥

 

साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥

जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

भावार्थ : - संतोंका चरित्र कपास के चरित्र (जीवन)-के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत-चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है; कपास उज्ज्वल होता है, संतका हृदय भी अज्ञान और पापरूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिये वह विशद है, और कपास में गुण (तन्तु) होते हैं, इसी प्रकार संतका चरित्र भी सद्गुणों का भण्डार होता छेद इसलिये वह गुणमय है।) [जैसे कपास का धागा सूईके किये हुए छेद को अपना तन देकर ढक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जानेका कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढकता है, उसी प्रकार] संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) -को ढकता है, जिसके कारण उसने जगत में वन्दनीय यश प्राप्त किया है ॥ ३ ॥

 

मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू॥

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥

भावार्थ : - संतों का समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संतसमाजरूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥ ४ ॥

 

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी । करम कथा रबिनंदनि बरनी॥

हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी॥

भावार्थ : - विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मोंकी कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान् विष्णु और शङ्करजीकी कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणोंकी देनेवाली हैं ॥ ५ ॥

 

बटु बिस्वास अचल निज धरमा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा॥

भावार्थ : - [उस संतसमाजरूपी प्रयागमें] अपने धर्ममें जो अटल विश्वास है वह अक्षयवट है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराजका समाज (परिकर) है। वह (संतसमाजरूपी प्रयागराज) सब देशोंमें, सब समय सभीको सहजहीमें प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करनेसे क्लेशोंको नष्ट करनेवाला है॥ ६ ॥

 

अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥

भावार्थ : - वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देनेवाला है; उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥ ७ ॥

 

दो०- सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।

लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥ २ ॥

भावार्थ : - जो मनुष्य इस संत-समाजरूपी तीर्थराजका प्रभाव प्रसन्न मनसे सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीरके रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों फल पा जाते हैं॥ २ ॥


मज्जन फल पेखिअ ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला॥

सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिमा नहिं गोई॥

भावार्थ : - इस तीर्थराजमें स्नानका फल तत्काल ऐसा देखनेमें आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संगकी महिमा छिपी नहीं है॥ १ ॥

 

 बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥

जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥

भावार्थ : - वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजीने अपने-अपने मुखोंसे अपनी होनी (जीवनका वृत्तान्त) कही है। जलमें रहनेवाले, जमीनपर चलनेवाले और आकाशमें विचरनेवाले नाना प्रकारके जड़-चेतन जितने जीव इस जगत्में हैं, ॥ २ ॥

 

मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥ 

सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहूँ बेद न आन उपाऊ ॥

भावार्थ : - उनमेंसे जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्नसे बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदोंमें और लोकमें इनकी प्राप्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ ३ ॥

 

बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥

भावार्थ : - सत्संगके बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजी1की कृपाके बिना वह सत्संग सहजमें मिलता नहीं। सत्संगति आनन्द और कल्याणकी जड़ है। सत्संगकी सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल हैं ॥ ४ ॥

 

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई॥

बिधि बस सुजन कुरसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥

भावार्थ : - दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है) । किन्तु दैवयोगसे यदि कभी सज्जन कुसंगतिमें पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँपकी मणिके समान अपने गुणोंका ही अनुसरण करते हैं (अर्थात् जिस प्रकार साँपका संसर्ग पाकर भी मणि उसके विषको ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाशको नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टोंके संगमें रहकर भी दूसरोंको प्रकाश ही देते हैं, दुष्टोंका उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता) ॥ ५ ॥

 

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी॥

सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥

भावार्थ : - ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितोंकी वाणी भी संत-महिमाका वर्णन करनेमें सकुचाती है; वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवालेसे मणियोंके गुणसमूह नहीं कहे जा सकते ॥ ६ ॥

 

दो०- बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।

अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥ ३ (क) ॥

भावार्थ : - मैं संतोंको प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्तमें समता है, जिनका न कोई मित्र है। और न शत्रु! जैसे अञ्जलिमें रखे हुए सुन्दर फूल [जिस हाथने फूलोंको तोड़ा और जिसने उनको रखा उन] दोनों ही हाथोंको समानरूपसे सुगन्धित करते हैं [ वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनोंका ही समानरूपसे कल्याण करते हैं ] ॥ ३(क) ॥

 

 संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।

बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ ३ (ख) ॥

भावार्थ : - संत सरलहृदय और जगतके हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेहको जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनयको सुनकर कृपा करके श्रीरामजीके चरणोंमें मुझे प्रीति दें॥ ३ (ख) ॥

 

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरें ॥

भावार्थ : - अब मैं सच्चे भावसे दुष्टोंको प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवालेके भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरोंके हितकी हानि ही जिनकी दृष्टिमें लाभ है, जिनको दूसरोंके उजड़नेमें हर्ष और बसनेमें विषाद होता है॥ १ ॥

 

हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥

भावार्थ : - जो हरि और हरके यशरूपी पूर्णिमाके चन्द्रमाके लिये राहुके समान हैं (अर्थात् जहाँ कहीं भगवान् विष्णु या शङ्करके यशका वर्णन होता है, उसीमें वे बाधा देते हैं) और दूसरोंकी बुराई करनेमें सहस्रबाहुके समान वीर हैं। जो दूसरोंके दोषोंको हजार आँखोंसे देखते हैं और दूसरोंके हितरूपी घीके लिये जिनका मन मक्खीके समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घीमें गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरोंके बने-बनाये कामको अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं) ॥ २ ॥

 

तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥

उदय केत सम हित सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥

भावार्थ : - जो तेज (दूसरोंको जलानेवाले ताप) में अग्रि और क्रोधमें यमराजके समान हैं, पाप और अवगुणरूपी धनमें कुबेरके समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभीके हितका नाश करनेके लिये केतु (पुच्छल तारे) के समान है, और जिनके कुम्भकर्णकी तरह सोते रहनेमें ही भलाई है ॥ ३ ॥

 

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा॥

भावार्थ : - जैसे ओले खेतीका नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरोंका काम बिगाड़नेके लिये अपना शरीरतक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टोंको [हजार मुखवाले] शेषजीके समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषोंका हजार मुखोंसे बड़े रोषके साथ वर्णन करते हैं॥ ४ ॥

 

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना । पर अघ सुनई सहस दस काना ॥

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥

भावार्थ : - पुन: उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुननेके लिये दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानोंसे दूसरोंके पापोंको सुनते हैं। फिर इन्द्रके समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है [इन्द्रके लिये भी सुरानीक अर्थात् देवताओंकी सेना हितकारी है] ॥५॥

 

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहस नयन पर दोष निहारा ॥

भावार्थ : - जिनको कठोर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखोंसे दूसरोंके दोषोंको देखते हैं॥ ६ ॥

 

दो०- उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करई सप्रीति ॥ ४ ॥

भावार्थ : - दुष्टोंकी यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसीका भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥४॥

 

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा । तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥

बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥

भावार्थ : - मैंने अपनी ओरसे विनती की है, परन्तु वे अपनी ओरसे कभी नहीं चूकेंगे। कौओंको बड़े प्रेमसे पालिये, परन्तु वे क्या कभी मांसके त्यागी हो सकते हैं? ॥ १ ॥

 

बंदउँ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं । मिलत एक दुख दारुन देहीं ॥

भावार्थ : - अब मैं संत और असंत दोनोंके चरणोंकी वन्दना करता हूँ; दोनों ही दुःख देनेवाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अन्तर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतोंका बिछुड़ना मरनेके समान दुःखदायी होता है और असंतोंका मिलना) ॥ २ ॥

 

उपजहिं एक संग जग माहीं । जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ॥

सुधा सुरा सम साधु असाधू । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥

भावार्थ : - दोनों (संत और असंत) जगत्में एक साथ पैदा होते हैं; पर [एक साथ पैदा होनेवाले] कमल और जोंककी तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्शसे सुख देता है, किन्तु जोंक शरीरका स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृतके समान (मृत्युरूपी संसारसे उबारनेवाला) और असाधु मदिराके समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करनेवाला) है, दोनोंको उत्पन्न करनेवाला जगत्रूपी अगाध समुद्र एक ही है। [शास्त्रोंमें समुद्रमन्थनसे ही अमृत और मदिरा दोनोंकी उत्पत्ति बतायी गयी है] ॥ ३ ॥

 

भल अनभल निज निज करतूती । लहत सुजस अपलोक बिभूती॥

सुधा सुधाकर सुरसरि साधू । गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥

गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ॥

भावार्थ : - भले और बुरे अपनी-अपनी करनीके अनुसार सुन्दर यश और अपयशकी सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गङ्गाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुगके पापोंकी नदी अर्थात् कर्मनाशा और हिंसा करनेवाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं; किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥ ४-५॥

 

दो०- भलो भलाइह  पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।

सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥ ५॥

भावार्थ : - भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचताको ही ग्रहण किये रहता है। अमृतकी सराहना अमर करनेमें होती है और विषकी मारनेमें ॥ ५ ॥

 

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा । उभय अपार उदधि अवगाहा ॥

तेहि तें कछु गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥

भावार्थ : - दुष्टोंके पापों और अवगुणोंकी और साधुओंके गुणोंकी कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसीसे कुछ गुण और दोषोंका वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥ १ ॥

 

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥

कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥

भावार्थ : - भले, बुरे सभी ब्रह्माके पैदा किये हुए हैं, पर गुण और दोषोंको विचारकर वेदोंने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्माकी यह सृष्टि गुण-अवगुणोंसे सनी हुई है ॥ २ ॥

 

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती ॥

दानव देव ऊँच अरु नीचू । अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥

माया ब्रह्म जीव जगदीसा । लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ॥

कासी मग सुरसरि क्रमनासा । मरु मारव महिदेव गवासा ॥

सरग नरक अनुराग बिरागा । निगमागम गुन दोष बिभागा ॥

भावार्थ : - दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुन्दर जीवन) -मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गङ्ग-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य, [ये सभी पदार्थ ब्रह्माकी सृष्टिमें हैं।]) वेद-शास्त्रोने उनके गुण-दोषोंका विभाग कर दिया है॥ ३-५॥

 

दो०- जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥ ६॥

भावार्थ : - विधाताने इस जड-चेतन विश्वको गुण-दोषमय रचा है; किन्तु संतरूपी हंस दोषरूपी जलको छोड़कर गुणरूपी दूधको ही ग्रहण करते हैं।॥ ६ ॥

 

अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।॥

काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई॥

भावार्थ : - विधाता जब इस प्रकारका (हंसका-सा) विवेक देते हैं, तब दोषोंको छोड़कर मन गुणोमें अनुरक्त होता है। काल-स्वभाव और कर्मकी प्रबलतासे भले लोग (साधु) भी मायाके वशमें होकर कभी-कभी भलाईसे चूक जाते हैं॥ १ ॥

 

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं।॥

खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥

भावार्थ : - भगवानके भक्त जैसे उस चूकको सुधार लेते हैं और दुःख-दोषोंको मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दष्ट भी कभी-कभी उत्तम सङ्ग पाकर भलाई करते हैं; परन्तु उनका कभी भंग न होनेवाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता।॥ २ ॥

 

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ | बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥

उघरहिं अंत न होइ निवाहू । कालनेमि जिमि रावन राह॥

भावार्थ : - जो [वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधुका-सा) वेष बनाये देखकर वेषके प्रतापसे जगत् पूजता है, परन्तु एक-न-एक दिन के चौड़े आ ही जाते हैं, अन्ततक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहुका हाल हुआ॥ ३ ॥

 

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ||

हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥

भावार्थ : - बुरा वेष बना लेनेपर भी साधुका सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान् और हनुमानजी का हुआ। बुरे संगसे हानि और अच्छे संगसे लाभ होता है, यह बात लोक और वेदमें है और सभी लोग इसको जानते हैं ॥ ४ ॥

 

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं  मिलइ नीच जल संगा ॥

साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं ॥

भावार्थ : - पवनके संगसे धूल आकाशपर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचेकी ओर बहनेवाले) जलके संगसे कीचड़में मिल जाती है। साधुके घरके तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधुके घरके तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं ॥ ५ ॥

 

धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥

सोड़ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥

भावार्थ : - कुसंगके कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ [ सुसंगसे) सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखनेके  काम में आता है और वही धुआँ, जल, अग्नि और पवनके संगसे बादल होकर जगत्को जीवन देनेवाला बन जाता है || ||

 

दो०- ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।

होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ ७ ( क) ॥

भावार्थ : - ग्रह, ओषधि, जल, वायु और वस्त्र -ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसारमें बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बातको जान पाते हैं॥ ७ (क) ॥

 

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह |

ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥ ७ ( ख) ॥

भावार्थ : - महीनेके दोनों पखवाड़ोंमें उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाताने इनके नामें भेद कर दिया है (एकका नाम शुक्ल और दूसरेका नाम कृष्ण रख दिया)। एकको चन्द्रमाका बढ़ानेवाला और दूसरेको उसका घटानेवाला समझकर जगत्ने एकको सुयश और दूसरेको अपयश दे दिया || ७ (ख) ||

 

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ ७ ( ग) ॥

भावार्थ : - जगतमें जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलोंकी सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ ॥ ७ (ग) ॥

 

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।

बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥ ७ ( घ)॥

भावार्थ : - देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझपर कृपा कीजिये ॥ ७ (घ)॥

 

आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी॥

सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥

भावार्थ : - चौरासी लाख योनियोंमें चार प्रकारके (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाशमें रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगतको श्रीसीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ || ||

 

जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥

निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें बिनय करउँ सब पाहीं ॥

भावार्थ : - मुझको अपना दास जानकर कृपाकी खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिये। मुझे अपने बुद्धि-बलका भरोसा नहीं है, इसीलिये मैं सबसे विनती करता हूँ || ||

 

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥

सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ॥

भावार्थ : - मैं श्रीरघुनाथजीके गुणोंका वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्रीरामजीका चरित्र अथाह है। इसके लिये मुझे उपायका एक भी अंग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता । मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥ ३॥

  

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।॥

छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥

भावार्थ : - मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है; चाह तो है, पर जगतमें जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाईको क्षमा करेंगे और मेरे बालवचनोंको मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे॥ ४ ॥

 

जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥

हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी । जे पर दूषन भूषनधारी॥

भावार्थ : - जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मनसे सुनते हैं। किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरोंके दोषोंको ही भूषणरूपसे धारण किये रहते हैं (अर्थात् जिन्हें पराये दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे॥ ५॥

 

निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका |

जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ||

भावार्थ : - रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्त जो दूसरेकी रचनाको सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगतमें बहुत नहीं हैं,॥ ६॥

 

जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥

सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥

भावार्थ : - हे भाई! जगतमें तालाबों और नदियोंके समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नतिसे प्रसन्न होते हैं)। समद्र-सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमाको पूर्ण देखकर (दूसरोंका उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥ ७ ॥

 

दो०- भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।

पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास ॥८॥

भावार्थ : - मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे ॥ ८ ॥

 

खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा ॥

हँसहीं बक दादुर चातकही । हँसहीं मलिन खल बिमल बतकही ॥

भावार्थ : - किन्तु दुष्टोंके हँसनेसे मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठवाली कोयलको कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंसको और मेढक पपीहेको हँसते हैं, वैसे ही मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणीको हँसते हैं॥ १ ॥

 

कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥

भाषा भनिति भोरि मति मोरी । हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥

भावार्थ : - जो न तो कविताके रसिक हैं और न जिनका श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्यरसका काम देगी। प्रथम तो यह भाषाकी रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है; इससे यह हँसनेके योग्य ही है, हँसनमें उन्हें कोई दोष नहीं ॥ २ ॥

 

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी ॥

हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहूँ मधुर कथा रघुबर की ॥

भावार्थ : - जिन्हें न तो प्रभुके चरणोंमें प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुननेमें फीकी लगेगी। जिनकी श्रीहरि (भगवान् विष्णु) और श्रीहर (भगवान् शिव) के चरणोंमें प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करनेवाली नहीं है । जो श्रीहरि-हरमें भेदकी या ऊँच-नीचकी कल्पना नहीं करते), उन्हें श्रीरघुनाथजीकी यह कथा मीठी लगेगी ॥ ३ ॥

 

राम भगति भूषित जियें जानी । सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ||

कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ||

भावार्थ : - सज्जनगण इस कथाको अपने जीमें श्रीरामजीकी भक्तिसे भूषित जानकर सुन्दरवाणीसे सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्यरचनामें ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओंसे रहित हूँ ॥ ४ ॥

 

आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक बिधाना ||

भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ||

भावार्थ : - नाना प्रकारके अक्षर, अर्थ और अलङ्कार, अनेक प्रकारकी छन्दरचना, भावों और रसोंके अपार भेद और कविताके भाँति-भाँतिके गुण-दोष होते हैं || ||

 

कबित बिबेक एक नहिं मोरें | सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें ||

भावार्थ : - इनमेंसे काव्यसम्बन्धी एक भी बातका ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागजपर भाव लिखकर [शपथपूर्वक] सत्य-सत्य कहता हूँ॥ ६ ॥

 

दो०- भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।

सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥ ९ ॥

भावार्थ : - मेरी रचना सब गुणोंसे रहित है; इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे ॥ ९ ॥

 

एहि महँ रघुपति नाम उदारा । अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥

भावार्थ : - इसमें श्रीरघुनाथजीका उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणोंका सार है, कल्याणका भवन है और अमङ्गलोंको हरनेवाला है, जिसे पार्वतीजीसहित भगवान् शिवजी सदा जपा करते हैं || ||

 

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ | राम नाम बिनु सोह न सोऊ ||

बिधुबदनी सब भाँति सँवारी | सोह न बसन बिना बर नारी ||

भावार्थ : - जो अच्छे कविके द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी रामनामके बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमाके समान मुखवाली सुन्दर स्त्री सब प्रकारसे सुसज्जित होनेपर भी वस्त्रके बिना शोभा नहीं देती॥ २ ॥

 

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही । मधुकर सरिस संत गुनग्राही ॥

भावार्थ : - इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणोंसे रहित कविताको भी, रामके नाम एवं यशसे अंकित जानकर, बुद्धिमान् लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौरेंकी भाँति गुणहीको ग्रहण करनेवाले होते हैं ॥ ३ ॥

 

जदपि कबित रस एकउ नाहीं । राम प्रताप प्रगट एहि माहीं ||

सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा ||

भावार्थ : - यद्यपि मेरी इस रचनामें कविताका एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीरामजीका प्रताप प्रकट है। मेरे मनमें यही एक भरोसा है। भले संगसे भला, किसने बडण्पन नहीं पाया? ॥ ४॥

 

धूमउ तजई सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ||

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी ||

भावार्थ : - धुआँ भी अगरके संगसे सुगन्धित होकर अपने स्वाभाविक कड़वेपनको छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगतका कल्याण करनेवाली रामकथारूपी उत्तम वस्तुका वर्णन किया गया है। [इससे यह भी अच्छी ही समझी जायगी) || ||

 

छं०- मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥

भावार्थ : - तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीकी कथा कल्याण करनेवाली और कलियुगके पापोंको हरनेवाली है। मेरी इस भद्दी कवितारूपी नदीकी चाल पवित्र जलवाली नदी (गङ्गाजी) की चालकी भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथजीके सुन्दर यशके संगसे यह कविता सुन्दर तथा सज्जनोंके मनको भानेवाली हो जायगी। श्मशानकी अपवित्र राख भी श्रीमहादेवजीके अंगके संगसे सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है |

 

दो०-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।

दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग ॥ १० (क) ॥

भावार्थ : - श्रीरामजीके यशके संगसे मेरी कविता सभीको अत्यन्त प्रिय लगेगी, जैसे मलय पर्वतके संगसे काष्ठमात्र [चन्दन बनकर] वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ [की तुच्छता] का विचार करता है? ।॥ १० (क) ॥

 

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद  करहिं सब पान ।

गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ १० (ख)॥

भावार्थ : - श्यामा गौ काली होनेपर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषामें होनेपर भी श्रीसीता-रामजीके यशको बुद्धिमान् लोग बड़े चावसे गाते और सुनते हैं॥ १० (ख) ॥

 

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥

नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥

भावार्थ : - मणि, माणिक और मोतीकी जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथीके मस्तकपर वैसी शोभा नहीं पाती। राजाके मुकुट और नवयुवती स्त्रीके शरीरको पाकर ही ये सब अधिक शोभाको प्राप्त होते हैं ॥ १ ॥

 

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥

भगति हेतु विधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई॥

भावार्थ : - इसी तरह, बुद्धिमान् लोग कहते हैं कि सुकविकी कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात् कविकी वाणीसे उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्शका ग्रहण और अनुसरण होता है)। कविके स्मरण करते ही उसकी भक्तिके कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोकको छोड़कर दौड़ी आती हैं।॥ २ ॥

 

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥

कबि कोबिद अस हृदय बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥

भावार्थ : - सरस्वतीजीकी दौड़ी आनेकी वह थकावट रामचरितरूपी सरोवरमें उन्हें नहलाये बिना दूसरे करोड़ों उपायोंसे भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदयमें ऐसा विचारकर कलियुगके पापोंको हरनेवाले श्रीहरिके यशका ही गान करते हैं || ||

 

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥

हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥

भावार्थ : - संसारी मनुष्योंका गुणगान करनेसे सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं [कि मैं क्यों इसके बुलानेपर आयी] । बुद्धिमान् लोग हृदयको समुद्र, बुद्धिको सीप और सरस्वतीको स्वाति नक्षत्रके समान कहते हैं॥ ४ ॥

 

जौ बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥

भावार्थ : -  इसमें यदि श्रेष्ठ विचाररूपी जल बरसता है तो मुक्तामणिके समान सुन्दर कविता होती है॥५ ॥